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अशोक ने कभी बौद्ध धर्म नहीं स्वीकारा, ये केवल वामपंथी इतिहास का कोरा बकवास है
मौर्यवंश के सभी शासक हिन्दू थे, अशोक भी| अंग्रेजों और बौद्धों की झूठी बातों पर ध्यान देने के बदले अशोक के शिलालेख पढ़े जायं, रोमिला थापर की पुस्तक में मिल जायेंगे | पेशावर का एक ग्रीक राजा मिनांदर बाद में बौद्ध बना, वरना भारत का कोई भी राजा कभी भी बौद्ध नहीं बना | किन्तु बौद्ध भिक्षुओं का भी सम्मान होता था, यही तो हिन्दुओं का स्वभाव रहा है |
मिनांदर के बारे में भी बौद्ध स्रोत कहते हैं कि वह बौद्ध बन गया था , किन्तु दो इंडो-ग्रीक राजाओं (मीनराज तथा स्फुटिध्वज) ने ज्योतिष के ग्रन्थ संस्कृत में लिखे जिसका दर्शन 100% सनातनी है |
इसका कोई प्रमाण नहीं है कि अशोक ने बौद्ध धर्म को अपनाया | सनातन धर्म से घृणा करने वाले अंग्रेजों ने जानबूझकर हिन्दू समाज को बाँटने के लिए कई हथकण्डे खोजे, जिनमे एक हथकंडा यह भी था कि बौद्धमत को बढ़ावा दिया जाय और हिन्दुओं से लड़ाया जाय | मैं पुनः कहता हूँ कि अशोक के शिलालेख पढ़ लें, “बौद्ध” शब्द ही नहीं मिलेगा, सर्वत्र “ब्राह्मणों और श्रमणों” के लिए विशेष सम्मान और छूटों का उल्लेख है |
“श्रमण” का अर्थ जानबूझकर अंग्रेजों ने “बौद्ध” लगाया, जबकि ब्राह्मण का शास्त्रीय अर्थ होता है “ब्रह्म-प्राप्त ज्ञानी व्यक्ति” और श्रमण का अर्थ है श्रम अर्थात तपस्या में रत व्यक्ति जो तत्कालीन 65 सम्प्रदायों में से किसी भी सम्प्रदाय का हो सकता था |
उन 65 में से एक सम्प्रदाय बौद्धों का भी था | बौद्धमत एक पृथक था ही नहीं | बौद्धों के मूल ग्रन्थ हैं त्रिपिटक, उनमें भी अशोक के शिलालेखों जैसी ही भाषा है : सच्चे ब्राह्मणों की सर्वत्र प्रशंसा गौतम बुद्ध ने भी धम्मपिटक में की और लोभी ब्राह्मणों की निन्दा की, किन्तु ऐसा तो वेदव्यास जी ने भी किया |
मेगास्थानीस का इन्डिका इन्टरनेट पर मुफ्त में मिल जाएगा | कलिंग के तीन भाग थे जिनमे हिमालय की तराई से दक्षिण तक के सारे गणतन्त्र थे | “क” का अर्थ यास्क ने बताया 33 व्यंजनों द्वारा प्रदर्शित 33 कोटि (किस्म) के देवताओं में प्रथम देवता परब्रह्म, जो कभी प्रकट नहीं होते किन्तु उनके तीन चिह्न (लिंग) प्रकट होते हैं : ब्रह्मा-विष्णु-महेश |
यह है त्रि-कलिंग जिसका विस्तार से वर्णन मेगास्थानीस ने किया | चाणक्य ने भारतीय गणराज्यों का महासंघ बनाया और मगध के अत्याचारी एवं देशद्रोही राजा को हटाकर मगध को भी उस संघ में ले आये, जिसे अंग्रेजों ने झूठ-मूठ मौर्य साम्राज्य कहा | चन्द्रगुप्त मौर्य साम्राज्यवादी नहीं थे | उन्होंने जीवन में तीन ही युद्ध लड़े —
(1) सिकन्दर से युद्ध जिसका उल्लेख प्राचीन भारतीय साहित्य में है किन्तु अंग्रेजों ने साफ़ अनदेखा कर दिया, क्योंकि सिकन्दर भारत में अनेकों गणराज्यों और राजाओं से युद्ध में हारकर भागा था और सिन्धुतट पर लगे घाव के कारण ही बेबीलोन पँहुचने से पहले ही रास्ते में मारा गया यह बात यूरोपियन “विद्वानों” को रास नहीं आयी जो आज भी सिकन्दर को झूठ-मूठ विश्व-विजेता कहते हैं |
(2) नन्द से युद्ध जिसमें बहुत से राजाओं और गणराज्यों ने साथ दिया, और
(3)आक्रमणकारी सेल्यूकस से युद्ध, जिस कारण मगध साम्राज्य ईरान की सीमा तक फैल गया |
चन्द्रगुप्त मौर्य या उसके पुत्र ने कभी अन्य कोई युद्ध लड़ा ही नहीं | फिर दक्षिण भारत पर मौर्यों का कब्जा कैसे और कब हो गया, जैसा कि इतिहास का कबाड़ा करने वाले कबाड़ी इतिहासकार पढ़ाते हैं ?
समाधान है मेगास्थानीस का इन्डिका : जिस कलिंग महासंघ ने चन्द्रगुप्त को गद्दी पर बिठाया, उसके विरुद्ध चन्द्रगुप्त क्यों लड़ता ? और वह महासंघ भी चन्द्रगुप्त को बाहरी व्यक्ति क्यों समझता ?
किन्तु जिस अशोक ने भाइयों को भी जिन्दा नहीं छोड़ा, वह एकछत्र अधिनायकवादी साम्राज्य की लिप्सा में अन्धा होकर कलिंग संघ को क्यों छोड़ता ? मगध राज्य ईरान की सीमा तक फैल गया था, उसके समक्ष कलिंग टिक न सका | पहले सैनिकों को मारा | फिर सारे युवक लड़ने आये, मारे गए | फिर गुरुकुलों के गुरु और शिष्य आये, मारे गए — अनगिनत ब्रह्महत्याएं हुई |
फिर नारियाँ आयीं, कलिंगसेना के नतृत्व में (गणराज्यों के अध्यक्ष भी राजा कहलाते थे ; कलिंगसेना वैसी ही राजकुमारी थी जैसे कि सिद्धार्थ शाक्य गणराज्य के राजकुमार थे, उन्हें कोई गद्दी उत्तराधिकार में मिलने नहीं जा रही थी) | पहले तो अशोक ने ना-नुकुर किया, उसके बाद जो किया वह महिषासुर के सिवा पूरे विश्व इतिहास में किसी और ने नहीं किया, किसी राक्षस ने भी नहीं | अंग्रेजों को केवल “अशोक” ही प्राचीन भारत में “महान” दिखा, क्योंकि सनातनी साहित्य में अशोक को महत्त्व नहीं दिया गया, अशोक कुख्यात हो चुका था | उसने बौद्धों को अपने पक्ष में करने की चाल चली – कलिंग युद्ध के दो साल बाद उसका हृदय “पिघला” !
किन्तु मौर्यों का वंश जनता की दृष्टि में राज करने का नैतिक अधिकार खो चुका था | यही कारण है कि पूरी सेना के समक्ष सेनापति पुष्यमित्र ने मौर्य सम्राट का वध किया तो एक भी सैनिक या नागरिक ने सम्राट की ओर से विरोध नहीं किया, किसी बौद्ध ने भी मुँह नहीं खोला, क्योंकि भारतीयों (हिन्दुओं-बौद्धों-जैनों) के हृदय से धर्म का लोप नहीं हुआ था |
महाभारत में व्यास जी ने बारम्बार कहा कि जो धर्म की रक्षा करते हैं धर्म भी उन्हीं की रक्षा करता है | मौर्यों का धर्म चुक गया था |
केवल तीन चीजों का अध्ययन कर लें :– धम्मपिटक, मेगास्थानीस का इन्डिका, अशोक के शिलालेख, और सम्भव हो तो विशाखदत्त का संस्कृत नाटक “मुद्राराक्षस” भी पढ़ लें जिसका हिंदी अनुवाद 91 वर्ष पहले भारतेन्दु हरिश्चन्द्र जी ने किया था |
कैसे चन्द्रगुप्त मौर्य ने अकेले सिकन्दर की लाखों की सेना में घुसकर उसे नीचा दिखाया था यह आपको सेक्युलर इतिहासकार नहीं बताएँगे, वे तो चन्द्रगुप्त मौर्य को भी हिन्दू नहीं बल्कि जैन बतायेंगे, जबकि उस काल में सनातनियों और जैनों में परस्पर पृथक religion वाली कोई भावना भी नहीं थी, और चाणक्य के आज्ञाकारी शिष्य ने कभी जैन मत अपनाया इसका प्रमाण भी नहीं है |
चन्द्रगुप्त मौर्य ने वर्णाश्रम धर्म के प्राचीन नियम का पालन करते हुए संन्यास लिया तो उसे म्लेच्छों ने जैन घोषित कर दिया !
कोई व्यक्ति बौद्ध बन जाए किन्तु भिक्षु न बनकर सिंहासन से चिपका रहे, या कोई व्यक्ति जैन बन जाय किन्तु दिगम्बर या श्वेताम्बर साधु न बनकर दूकानदारी चलाता रहे या राजा बना रहे — प्राचीन भारत में यह अकल्पनीय था, यह भी अकल्पनीय था कि कोई ब्राह्मण खेती करे या दूकान खोल ले |
प्राचीन भारत में कोई राजा बौद्ध या जैन हो ही नहीं सकता था | ऐसी असम्भव कल्पनाएँ दासता के युग की खोजें हैं |
अतः पुष्यमित्र शुंग ने यवन खतरे से देश को बचाने के लिए गद्दी सम्भाली और दीर्घकाल के बाद भारत में अश्वमेध यज्ञ हुआ तो कोई अनुचित कार्य नहीं हुआ क्योंकि मौर्य राजा नालायक था, यही कारण है कि किसी ने विरोध भी नहीं किया | उनके पुत्र अग्निमित्र को कालिदास ने एक नाटक का मुख्य पात्र भी बनाया |
सेक्युलर इतिहासकार “सबूत” यह देते हैं कि श्रवण-बेलगोला में 600 ईस्वी का अभिलेख मिला जिसमे भद्रबाहु और “चन्द्रगुप्त-मुनि” का वर्णन है | बाद के भी कुछ अभिलेखों में ऐसा उल्लेख है |
किन्तु यही मुनि मौर्य-सम्राट चन्द्रगुप्त थे ऐसा स्पष्ट उल्लेख 1432 ईस्वी के अभिलेख से पहले कहीं नहीं मिलता | 1432 ईस्वी के जैन अभिलेख को उससे 1729 पहले की घटना का प्रमाण किस आधार पर माना जाय? समकालीन अभिलेख को प्रमाण माना जाता है |
आज सेएक हज़ार वर्ष पहले वहाँ जैन मठ की स्थापना हुई, बाद में बाहुबली की विशाल मूर्ति स्थापित हुई, और पाँच सौ वर्ष बाद चन्द्रगुप्त मौर्य के जैन मुनि होने का अभिलेख बनाया गया |
चन्द्रगुप्त मौर्य जबतक सम्राट थे तबतक “मुनि” नहीं थे, और उस युग में जैन बनने का अर्थ ही था मुनि बनना, आजकल की तरह नहीं कि जैन भी हैं और दूकान भी खोले हुए हैं | मेरी बात बुरी लगे तो मैं क्या करूँ, कई बार सत्य अप्रिय हो सकता है किन्तु सत्य कभी भी अपकार नहीं करता |
ये सेक्युलर इतिहासकार भी कहते हैं कि चन्द्रगुप्त स्वेच्छा से गद्दी त्यागते समय “सम्भवतः” जैन बन गया | यदि यह सत्य है तो भी जबतक वह राजा था तबतक सनातनी था न !, अशोक की मौत के बाद मौर्य साम्राज्य केवल 50 वर्ष ही टिका, और आखिरी मौर्य तक सभी राजा हिन्दू ही रहे, अशोक की मौत के बाद भी उनका दाह संस्कार कर उनके अवशेषों को बनारस में गंगा नदी में सनातन परम्परा से अर्पित किया गया .
Source - http://www.dainikakhbar.com
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